This article is published in collaboration with The Wire in India, as part of a content series supported by the IPI South Asia cross-border journalism project, which aims to support press freedom and promote the safety of journalists in Bangladesh, India, Pakistan, and Nepal.

पटना: मई 2016 में सीवान में सरेआम हिंदी अख़बार ‘हिंदुस्तान’ के पत्रकार राजदेव रंजन की हत्या कर दी गई थी. आज करीब साढ़े छह साल बीत जाने के बाद भी उनका परिवार इंसाफ के इंतजार में है.

13 मई 2016 को सीवान रेलवे स्टेशन के निकट 45 साल के पत्रकार राजदेव रंजन की गोली मारकर हत्या की गई थी. उनकी पत्नी आशा रंजन रोते हुए बताती हैं, ‘मुझे एक ईमानदार पत्रकार की पत्नी होने की सजा मिली. जिस दिन उनकी निर्मम हत्या की गई थी उसके ठीक एक दिन बाद हमारी शादी की सालगिरह थी. आप ही सोचिए उस वक्त एक बीवी पर क्या बीतेगी! उसके क्या- क्या सपने होगें कितनी उम्मीदें रही होंगी… जिन्हें अपराधियों ने हमेशा के लिए छीन लिया.’

राजदेव रंजन के परिवार में माता-पिता, पत्नी और दो बच्चे थे, जिन्हें आशा ने ही संभाला. जब राजदेव रंजन की हत्या हुई थी उस समय आशा रंजन ने हिम्मत दिखाते हुए दूसरे दिन ही सीवान से चार सांसद रहे राष्ट्रीय जनता दल (राजद) के नेता और बाहुबली का रुतबा रखने वाले शहाबुद्दीन और अन्य के खिलाफ स्थानीय थाने में शिकायत दर्ज करवाई.

उन्होंने बताया कि थाने में शहाबुद्दीन का नाम सुनते ही केस दर्ज करने से मना कर दिया गया, जिसके बाद आक्रोशित आशा रंजन और स्थानीय लोगों ने प्रदर्शन किया. आशा ने बताया कि स्थानीय लोगों के साथ-साथ और स्थानीय मीडिया का पूरा समर्थन मिला, जिसके चलते आखिरकार पुलिस ने मामला दर्ज किया. हालांकि, उस समय शहाबुद्दीन का नाम मामले में शामिल नहीं किया गया था.

बिहार में उस समय राजद और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) की महागठबंधन सरकार थी. शहाबुद्दीन राजद के एक बड़े नेता थे और जेल में बंद होने के बावजूद उनके नाम का खौफ चारों तरफ कायम था. आशा ने कहा, ‘सबको पता था कि इस हत्या के पीछे शहाबुद्दीन का हाथ है लेकिन कोई उसके खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं कर रहा था.’

आशा रंजन को विश्वास था कि अगर बिहार पुलिस इस केस को अपने हाथ में लेती है तो निष्पक्ष जांच नहीं हो पाएगी और उनके पति को न्याय नहीं मिल सकेगा. उन्हें लगता था कि शहाबुद्दीन और अन्य आरोपियों को बचाने के लिए राजनीतिक दबाब जरूर होगा, इसीलिए उन्होंने मुख्यमंत्री और केंद्र सरकार से गुहार लगाई कि केस सीबीआई को सौंपा जाए.

आशा की सीबीआई जांच की मांग को लेकर पत्रकारों द्वारा भी राज्य सरकार पर दबाव बनाया गया था, जिसके बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सीबीआई जांच की अनुशंसा की, जिसे केंद्र ने तुरंत ही मंजूरी भी दे दी. हालांकि, अब साढ़े छह साल का लंबा वक्त बीत जाने के बाद भी कोई फैसला नही आया है. न्याय के इंतजार में सितंबर 2017 में राजदेव की मां और दिसंबर 2020 में पिता चल बसे.

आशा कहती हैं, ‘एक-एक करके सभी मेरा साथ छोड़कर चले गए. अब मेरी हिम्मत भी जवाब दे रही है. लेकिन सोचती हूं कि अगर मुझे कुछ हो गया तो मेरे बच्चों को कौन देखेगा. बेटा कॉलेज में है और बेटी स्कूल में- दोनों की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर है लेकिन मुझे कुछ समझ नहीं आता कि आखिर मैं क्या करूं. मेरी जिंदगी का तो एक ही मकसद है अपने पति को न्याय दिलाना.’

उन्होंने आगे बताया, ‘राजदेव के जाने के बाद तो जैसे मेरी दुनिया ही खत्म हो गई. शुरुआत में तो सभी लोगों ने सहानुभूति दिखाई, चाहे वो परिवार हो, समाज या फिर लोकल मीडिया लेकिन फिर धीरे-धीरे सभी ने किनारा कर लिया है. आज मैं पूरी तरह से अकेली हो गई हूं लेकिन कोई साथ दे या न दें मैं यह लड़ाई तब तक लड़ती रहूंगी जब तक मुझे न्याय नही मिल जाता.’

इन परिस्थितियों के बीच अक्टूबर 2020 में आशा रंजन ने एक बड़ा फैसला लेते हुए बिहार विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए अपनी शिक्षिका की नौकरी से इस्तीफा दे दिया. चुनाव लड़ने के लिए आशा रंजन ने कई पार्टियों से संपर्क किया लेकिन किसी से टिकट नहीं मिला. तब उन्होंने निर्दलीय चुनाव लड़ने का फैसला किया लेकिन आशा रंजन की उम्मीदवारी ही निरस्त हो गई.

चुनाव लड़ने की ख्वाहिश के कारण जीवनयापन का एकमात्र सहारा- नौकरी थी, वो भी हाथ से चली गई. आशा ने शिक्षामित्र की उस नौकरी को दोबारा पाने के लिए काफी मेहनत की लेकिन ऐसा हो नहीं सका. नौकरी न रहने के चलते आशा रंजन को आर्थिक संकट से गुजरना पड़ा. वर्तमान में वे सीवान के केंद्रीय विद्यालय में अनुबंध पर शिक्षिका के तौर पर काम कर रही हैं.

आशा कहती हैं कि पिछली नौकरी चले जाने का काफी अफ़सोस है लेकिन अभी भी इरादा नहीं बदला है. वे कहती हैं, ‘मैं इन सब परिस्थितियों में टूटी नही हूं बल्कि और ज्यादा मजबूत हुई हूं. आगे भी अगर किसी पार्टी से मुझे टिकट मिलता है तो मैं चुनाव जरूर लड़ूंगी. फिर चाहे वो चुनाव विधानसभा का हो या लोकसभा का क्योंकि मेरा मकसद साफ है… कि जो मेरी हालत समाज में हुई है वैसा किसी और के साथ न हो.’

15 सितंबर 2016 को इस हत्याकांड की जांच सीबीआई को सौंपी गई. सीबीआई ने मुजफ्फरपुर सीबीआई कोर्ट में चार्जशीट दाखिल की, जिसमें राजद के नेता (अब दिवंगत) शहाबुद्दीन के अलावा लड्डन मियां उर्फ अजरुद्दीन बेग, रिशु कुमार जायसवाल, रोहित कुमार सोनी, विजय गुप्ता, राजेश कुमार और सोनू कुमार गुप्ता पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 120 बी (आपराधिक साजिश) और 302 (हत्या) के साथ आर्म्स एक्ट की धारा 34 के तहत आरोप लगाए गए थे.

राजदेव पर हुआ यह पहला हमला नहीं था. वर्ष 1998 में पहली बार राजदेव रंजन पर हमला हुआ था. उस समय राजदेव अपने सहयोगी रविंद्र प्रसाद के घर में बैठकर रिपोर्ट लिख रहे थे, जब उन पर गोली चली. हालांकि गोली राजदेव को न लगकर रविंद्र प्रसाद के हाथ में लगी थी. उसके बाद साल 2004 में भी उन पर हमला हुआ. उनके कार्यालय में घुसकर गुंडों ने लाठी-डंडे से बुरी तरह पिटाई की और साथ में जान से मारने की धमकी दी.

अनीश पुरुषार्थी पत्रकार हैं, जो हिंदुस्तान में राजदेव रंजन के साथ काम करते थे. वे कहते हैं, ‘राजदेव रंजन बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे जिसके कारण पत्रकारिता जगत के अलावा भी समाज में उनकी काफी इज्जत थी. खबरों पर उनकी पकड़ थी. खबर से उन्होंने कभी भी समझौता नहीं किया, जिसकी कीमत उनके परिवार वालों को चुकानी पड़ी.’

मिथिलेश कुमार सिंह भी रंजन के सहकर्मी और अच्छे दोस्त थे. उनका कहना है, ‘राजदेव एक निर्भीक और निष्पक्ष पत्रकार थे. मैंने अपनी जिंदगी में ऐसा साहसी और ईमानदार पत्रकार नहीं देखा है. वो एक सरल स्वभाव के इंसान थे. 90 के दशक में सीवान में क्राइम रिपोटिंग का मतलब था आग से खेलना लेकिन वो राजदेव के लिए शौक बन गया था.’

राजदेव की हत्या के मामले में सीबीआई ने चार्जशीट में हत्या का कारण एक दैनिक समाचार पत्र में प्रकाशित राजदेव रंजन की एक रिपोर्ट को बताया था. उस समय कई आपराधिक मामलों में आरोपित और सजायाफ्ता पूर्व सांसद शहाबुद्दीन के सीवान जेल में रहने के दौरान उनसे मिलने बिहार सरकार के तत्कालीन अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री सहित कुछ लोग गए थे. इस मुलाकात से संबंधित खबर और जेल के अंदर की तस्वीर के साथ राजदेव रंजन ने ही इस खबर को दैनिक समाचार में काफी प्रमुखता के साथ प्रकाशित किया था, जिससे उस समय सरकार की काफी किरकिरी भी हुई थी. इस पूरी घटना के बाद तिलमिलाए शहाबुद्दीन ने राजदेव रंजन को मारने का जिम्मा अपने खास लड्डन मियां को दिया, जिसे लड्डन मियां ने अपने साथियों के साथ मिलकर अंजाम दिया.

सीबीआई चार्जशीट में यह भी बताया गया था कि दिसंबर 2014 में राजदेव की एक खबर ‘सीवान जेल से जारी हिटलिस्ट’ के कारण भी शहाबुद्दीन बेहद नाराज था और फिर दो साल बाद जेल वाली खबर से उसकी नाराजगी और बढ़ गई, जिसके बाद उसने राजदेव को मारने को कहा.

हत्या के मामले की सुनवाई मुजफ्फरपुर की सीबीआई अदालत में चल रही है. हालांकि, जांच एजेंसी द्वारा केस में किस तरह की लापरवाही बरती जा रही है, इसका नमूना तब मिला जब 24 मई 2022 को सीबीआई ने एक गवाह जिनका नाम बादामी देवी है, उन्हें मृत घोषित कर दिया और साथ ही उनका मृत्यु प्रमाण पत्र भी कोर्ट में पेश कर दिया. यह मामला तब  प्रकाश में आया जब बादामी देवी ने खुद कोर्ट में पेश होकर अपने जीवित होने का प्रमाण दिया.

साथ ही उन्होंने कोर्ट को यह भी बताया कि उस समय तक सीबीआई के किसी अधिकारी ने उनसे संपर्क नहीं किया था. तब कोर्ट ने मामले को गंभीरता से लेते हुए सीबीआई को कारण बताओ नोटिस  भी जारी किया था.

गौरतलब है कि दिल्ली के एक जेल में हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा काट रहे मामले के मुख्य आरोपी शहाबुद्दीन की 21 मई 2021 को कोविड-19 संक्रमण के बाद मौत हो गई थी.

शरद सिन्हा रंजन के वकील हैं. उन्होंने बताया, ‘मामले में अभी तक 38 गवाहों की गवाही हो चुकी है. कोरोना वायरस महामारी की वजह से ज्यादातर गवाहों की गवाही रुक गई थी लेकिन अब फिर से गवाहियां हो रही है.’ मामले की पिछली सुनवाई 18 सितंबर 2022 को थी, लेकिन गवाह नहीं पहुंचे.

शरद बताते हैं, ‘इस केस को लेकर सीबीआई का जो रवैया है वो जगजाहिर है. वे जीवित गवाह को मरा हुआ घोषित कर देते है, तारीख पर कभी अधिकारी नही पहुंचते है तो कभी गवाह की गवाही नहीं दिला पाते! मैं कोर्ट से यही अपील कर चुका हूं कि जल्द से जल्द इस पर कोई ठोस निर्णय लिया जाए.’

राजदेव रंजन की हत्या के बाद बिहार में पत्रकारों की प्रताड़ना का सिलसिला रुका नहीं है. बीते छह सालों में राजदेव जैसे कई पत्रकार अपनी लेखनी के कारण जान गंवा चुके हैं. 2017 में एक हिंदी दैनिक के पत्रकार ब्रजकिशोर ब्रजेश, 2018 में नवीन निश्छलविजय कुमारअविनाश झा, वरिष्ठ पत्रकार महाशंकर पाठक की हत्या हुई. सबसे हालिया मामला 20 मई 2022 में 26 वर्षीय सुभाष कुमार महतो की हत्या का है, जो बालू और शराब माफियाओं पर लगातार लिख रहे थे.

This story was originally published on India’s The Wire.

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